मंगलवार, 21 जून 2011

हमारा पर्यावरण: बचपन और हमारा पर्यावरण---दर्शन बवेजा

हमारा पर्यावरण: बचपन और हमारा पर्यावरण---दर्शन बवेजा
बचपन जीवन का वो भाग जिस के लिए आदमी तब भी तरसता है जब वो बड़ा होता है जगजीत सिंह की वो गजल 'कागज की कशती' सुन कर बचपन की याद किस को ना आयी होगी| एक बचपन हमारा था अब हमारे अपने बच्चों का है और एक बचपन है 'कचरा बीनने वाले बच्चों का' जी एक सच जिस से नजरे नहीं फेरी जा सकती| सुबह तड़क वेला में कंधे पर कट्टा/बोरी लटकाए मैले गंदे बिना नहाये ये बच्चे दुकाने खुलने से पहले बाज़ारों में कालोनियों में स्कूलों के पास पहुँच जाते है और कागज ,गत्ता ,पोलीथीन ,प्लास्टिक आदि फेंका हुआ कचरा उठाने लगते है उन को कोई सरोकार नहीं है कि उसने बहुत बड़ी कम्पनी के बच्चों के कपड़ो का जो डिब्बा/पोलीथीन उठाया,अपने बोरे में डाला और फिर अगले शिकार(डिब्बे) की और भागा उस के पास वक्त नहीं है की वो ये जाने ५० पैसे में बिकने वाले इस डिब्बे में उस के ही हमउम्र का ३००० रुपयों का कोट था| उसे इस काम में यानि कचरा बीनने में भी कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है वो भाग भाग कर चीते की फुर्ती से आपने शिकार को पकड़ता है डिब्बा ,कागज ,अखबार ,पोलीथीन ,लोहा ,टीन गलनशील/अगलनशील कचरा और उस के बदले दिन को रोटी .. बचपन उनका और पर्यावरण हमारा जी हाँ ,मै कचरा बीनने वालों को सच्चा पर्यावरण हितैषी मानता हूँ वो छोटे छोटे बच्चों के झुण्ड दूर से ही अपने डिब्बे को भूखे बाज़ की तरह पहचान लेते है और दूर से ही बोल देते है वो मेरा,बड़े वे के प्रतिस्पर्धात्मक तिडकमों से अनजान इन के पेशे में बचपन की निश्छल,पाक,सहयोगात्मक भावना होती है......
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1 टिप्पणी:

virendra sharma ने कहा…

Eagles the big birds have venished so now these little hands are the scevengers .And they are out of census and often tmes repeated growth rate.Thanks for this socially relevent write up .